Friday, January 10, 2014

पल

मायूसी के आलम में, इक प्यार का झोंका लहराया,
जब आँख हमारी बंद हुई, देखा हमने भी कुछ पाया!


सफ़ेद किताबों के पन्नों सा, था दिल ये हमारा बेचारा,
एक लफ्ज़ जुड़ा, आफसाना बना, और इश्क का मौसम ले आया!
दुनिया जाने दुनियादारी, हमने कब उसपे हक है लिया,
कुछ लोग अलग भी होते हैं, ये हमने सबको समझाया!


क्यों है ये सब, क्यों ऐसा है, जैसा था वैसा रहने ना दिया,
सब बदल गया, सब बदल दिया, फिर हमको क्यों ऐसा कहते हैं!


बदले मौसम की बदली रूत, बदला बदला आलम सारा,
क्यों वैसा था, क्यों ऐसा है, क्यों फिरता हूँ मारा मारा!

नामों ना निशाँ, ना घर कोई, ना अपना कोई यहाँ होता है,
बस्ती है जहान में ख़ुशी कहाँ, पता ना ऐसा कोई देता है!

सब बोलते हैं कुछ करते नहीं, करने को फिर रखा क्या है,
यूँ हैं सब पर फिर कोई नही, जो सच को समझने देता है!

चलते जाओ कुछ पूछो मत, पूछोगे तो ये गुनाह होगा,
फिर कोई सजा मिल जाएगी यूँ, फिर तू शिकवा दे देगा!

सब है बस यूँ ही चलता हुआ, ना मिला किसी को अब तक ख़ुदा,
रस्ते सबने हैं ढूंड लिए, और चलते हैं तन्हा तन्हा!

रुकने का नामों निशाँ है कहाँ, रुकना तो बस एक लफ्ज़ ही है,
रुकने वाले कब चलते हैं, रुकना-मरना एक मर्ज़ ही है!

फिर जी लेंगे हंस लेंगे कभी, ऐसी ना हमको जल्दी है,
जल्दी होती तो रुकते ना, ऐसे जीना खुदगर्जी है!

चलो अब करते हैं रुख्सत, इन पलों को भी तो बदलना है,
हम हैं या ना हैं अगले पल, इनको तो चलते रहना है!

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